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लेखक तिकड़म से नहीं साधना से बना जाता है......

शेली किरण

 

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लेखक तिकड़म से नहीं साधना से बना जाता है, साधना का अर्थ है लेखन को साधना, अब लेखन को कैसे साधा जाए। जाहिर है सिर्फ पढ़कर नहीं अपने से और अपने आस पास उपलब्ध से बेहतर को पढ़कर। 
बल्कि संसार के सबसे बेहतर को पढ़कर। 
अगर कोई व्यक्ति अपनी ही सोच और पसंद का पढता रहेगा तो कभी पूर्वग्रह मुक्त नहीं होगा।
हिंदी का सवर्ण लेखक साधता नहीं है उसे छपने की हड़बड़ी है और अपनी विचारधारा का वर्चस्व बनाए रखने की चिंता भी है। 
कैसी भी किताब लिख
कर चाहता है समीक्षक अच्छा अच्छा लिख दे, संबंधों का हवाला देकर। 
चलो समीक्षक ने अच्छा अच्छा लिख भी दिया और उससे लेखक को क्या मिला? सफलता ।
 पाठक को क्या मिला ?
निराशा ।
कुछ बात ही नहीं , सिर्फ मैं का विस्तार। हिंदी के सवर्ण लेखकों का लेखन बहुत आत्मकेंद्रित है।
व्यक्ति से समष्टि में जुड नहीं पाते। 
यहां सफल मतलब सिलेबस में पढ़ाए जाने वालों से है, दोस्ती मित्रता , सिफारिश, जाति के आधार पर किताबों में छप जाओ बच्चे पढ़ेंगे और मान लेंगे लेखक। 
मैंने कई प्रतिभाशाली लेखकों को देखा जिनसे आप सम्मोहित हो सकते हैं लेकिन उनके पास गैलरी नहीं है।
हिंदी पट्टी प्रतिभा का नहीं आपसी संबंधों और भाई भतीजावाद का समर्थन करती है। रसूखदार वाह वाह करवा कर लेखक हैं, रसूखदारों की पत्नियां पतियों की पदवी के आधार पर लेखक हैं। 
अपने पैसे से पच्चास किताबें छपवा लो बन जाओ लेखक।
अंग्रेजी कहानियां तोड़ कर ,नाम बदल कर कथ्य चुराकर लेखक बनने वाले बहुतेरे हैं। 
अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं को पढ़ने वाले पाठक कम हैं इसलिए चोरी पकड़ी भी नहीं जाती।
जिस लेखक की लिखने की मौलिक शैली नहीं है उसका लेखन अपना नहीं है। 
उदाहरण के लिए खुशवंत सिंह के पाठक बिना नाम पढे बता सकते हैं कि यह उनका लिखा है, खुशवंत सिंह ट्रिब्यून और पंजाब केसरी, अजीत, में छपा करते थे, इसलिए उनका उदाहरण  याद आया, कि बचपन में शैली की समझ उन्हें पढ़कर बनी। 
बाद में अंग्रेजी के आलोचकों को पढ़कर समझ बनी।
हिंदी के लेखक और आलोचक शैली के सवाल से बचते हैं।
लिखा हुआ कोई नहीं चुरा सकता , हर लेखक का स्टाइल ही उसका सिग्नेचर है। 
लेकिन अंधों में काना राजा हो ही सकता है।
 बात यह है कि अपने मुल्क में सिर्फ लगभग आठ प्रतिशत लोग ग्रेजुएट हैं। 
उनमें भी बहुसंख्यक एप्लीकेशन भी रटकर याद करने वाले।
लेकिन संपर्क कभी भी योग्यता का स्थान नहीं ले सकते। कभी अफ्रीकी मूल के लेखकों से तुलना करने पर बहुत भोंदू लगते हैं। 
हिंदी की पूरी किताब में वो सार नहीं मिलता जो वो लेखक एक पन्ने में उतार देते हैं।
वंचित वर्ग के साथियों को अपने हित समझने के लिए मैं सिफारिश करती हूं कि मानयरिटी और दुनिया के वंचित समूहों को अंग्रेजी में ही पढ़ें।
भाषा ही तो है , कोई भी भाषा छह महीने में आ जाती है। 
गैलरी से प्रभावित नहीं हों। जिसकी प्रैस है, interpersonal relationships की वजह से वही महान लेखक है यहां।
ऊधम सिंह भी देशभक्त थे, और जलियांवाला बाग का असल बदला उन्होंने लिया था लेकिन जाति के कारण उनका प्रचार नहीं हुआ। उनके पुरखे आजाद भारत में मजदूरी करते हैं।
छोटी छोटी अखबार और वंचितों द्वारा संचालित यू ट्यूब चैनल बड़े बड़े प्रकाशन समूहों और चैनलों से कहीं बेहतर और ईमानदार काम कर रहे हैं। लेकिन आम जन के घर की स्क्रीन पर भोंदू ही चमक रहे हैं। 
 पावर और वर्चस्व हर क्षेत्र में महानता स्थापित कर सकता है। माध्यम कांच को हीरे से ज्यादा चमकीला दिखा सकते हैं,  लेकिन लेखन आभाव में पलता है।
 क्या ज्योतिबा ,पेरियार और बाबा साहेब को पढ़ने के बाद कोई किसी और को क्रांतिकारी लेखक मान पाएगा ?
 लेकिन उन्हें सिलेबस में स्पेस नहीं देकर बहुसंख्यक  पाठकों को बदलाव और उनसे लाभ उठाने से दूर रखा गया है।
शैली किरण

 

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सैफु द्घीन सैफी डॉ मीनू पाण्ड्य
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