मुझे संवाद पसंद हैं
बिना संवाद तो
रीते से सब,अधूरे।
जरूरी तो नहीं
हर संवाद में तर्क हो,
सीधे सपाट
निर्द्वन्द,सीमा की पहचान लिए।
क्यूँ नहीं,
अवश्य हो सकते हैं,
कई बार चुप भी बेहतर,मगर हरबार नहीं।
घुटन में ढका सामान
दे जाता है बदबू।
हवा चाहिए,
वाष्पित होने के लिए।
नहीं तो चूल्हे पे उबलते पानी के
तपेले के ढ़क्कन से
भाप बाहर गिरेगी
बूंद बूंद
हाँ बूंद बूंद
जिसका न कोई अस्तित्व न बोध।
और भीतर तपेला
रीतता रहेगा,धीरे धीरे
धीरे धीरे।।
सरोज शर्मा
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