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क्षेत्रीय प्रतियों को छोटा न समझे नेशनल पार्टियां

फातिमा अनवर

. जो लोग छोटी पार्टियों को 'वोट काटने' वाला कहते हैं, ये जान लें कि ये नासमझी की बात है. मध्य भारत में गोंगपा, जयस और गोंडवाना मुक्ति सेना जैसी पार्टियां हैं, जिनके एमएलए नहीं हैं, वह चुनाव नहीं जीततीं, मगर उनके पास कार्यकर्त्ता हैं, कैडर है, किसी भी ज़्यादती या कस्टडी में मौत के बाद, ये लोग जानते हैं कि डेमो करना है, मेमो देना है, प्रशासन से विक्टिम के लिए मदद लेना है. और ये सब करते हैं,

 

. क्या फायदा उस पार्टी के एमएलए से जो कभी आपके लिए न थाने पर समर्थक भेजता है, न उसके कार्यकर्त्ता या यूथ विंग किसी दल या परिषद् के सामने खड़े होने की हिम्मत भी रखते हों. सियासत दरअसल पावर गेम और और स्ट्रीट पावर, लोग साथ होना चाहिए, सिर्फ जीत या हार नहीं है. 

 

. ऐसी ऐसी पार्टियां हैं जो कोई सीट नहीं जीततीं मगर पूरे राज्य में किसी की हिम्मत नहीं कि उनके वोटर्स या सपोर्टर्स के बारे में कोई इनजस्टिस हो जाए. ये बड़ा विविधताओं यानी डायवर्सिटी का देश है, जितनी ज़्यादा पार्टियां उतनी ज़्यादा आवाज़ें, उतना ज़्यादा ऑप्शन, डिमॉक्रेसी तभी मज़बूत होगी, जो लोग चाहते हैं कि सिर्फ भाजपा और कांग्रेस रह जाए वह दरअसल दसियों करोड़ लोगों को गुलाम और उनकी आवाज़ को हाशिये पर कर देना चाहते हैं. 

 

. जीते चाहे न जीतो, हराओ, हरवाओ, हरवाने की भी ताक़त रखो और कुछ नहीं तो इतनी हैसियत रखो कि इंडिपेंडेंट पार्टी है तो उसके लेटरहेड पर एक इन्कवायरी डिमांड कर सको, ताकि अफसरशाही कोई ऐक्शन ले किसी वाक़ये के बाद.

 

. मनसे का नाम सुना है ना? राज ठाकरे की पार्टी, कितने एमएलए हैं? कोई है? मगर ताक़त ये है कि पार्टी हर ब्लॉक और तहसील तक कार्र्यकर्ता रखती है, हर मामले में इंटरवीन कर सकती हैं. ये होता है पार्टी होने का फायदा. मुर्दा बनना है तो फिर दो या तीन ही पार्टी को राइट्स दे दो वह आपस में मिल कर जिस तरह चाहें सब कुछ चला लें.

 

फातिमा अनवर खान

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प्रधान संपादक समाचार संपादक
सैफु द्घीन सैफी डॉ मीनू पाण्ड्य
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